सोमवार, 26 जून 2023

लाल साड़ी

 लाल साड़ी

मैं जल्दी-जल्दी रसोई में खाना बनाने में लगी हुई थी ,साथ ही चिंता की लकीरें साफ तौर पर मेरे माथे पर झलक रही थी।" आज भी नहीं आई काम पर ,8 दिन का बोल कर गई थी, 10 दिन हो गए आने दो देखती हूं उसे" मैं स्वयं ही बड़बड़ा रही थी। सुबह का समय आमतौर पर बहुत ही व्यस्त होता है क्योंकि मुझे 7:30 बजे विद्यालय जाना होता है लेकिन मेरी बाई कई दिन से गायब थी ,वह भी बिना बताए।
" इस बार मैं उसे पूरा पैसा बिल्कुल नहीं दूंगी , पैसा जरूर काटूँगी ।" मैं गुस्से में बोलती जा रही थी। जैसे जैसे समय बढ़ता जा रहा था मेरा गुस्सा भी बढ़ रहा था। अचानक ही घंटी बजी , 6:30 बजे होंगे। मेरी बाई एक दूसरी बाई के साथ घर में प्रवेश कर रही थी। उसे देखते ही मेरा गुस्सा जैसे फट पड़ा। सबसे अधिक गुस्सा इस बात का था कि वह बिना बताए गायब थी।
" कितने दिनों में आ रही हो तुम? " मैंने क्रोध से पूछा।" भाभी ! मैंने बताया तो था कि नवरात्रि में जवारे रखे हैं घर पर, तो नहीं आऊंगी।" बाई बोली।" तुमने केवल 8 दिन का कहा था पर आज 11 दिन हो गए। तुम्हें पता है ,सुबह का समय कितना कीमती होता है ,मुझे कितनी परेशानी  होती है ऐसे बिना बताए गायब होने से?" मैंने गुस्से में कहा।
" क्या करूं भाभी, घर में जवारे रखे थे, इतना काम था इसीलिए नहीं आई।"बाई बोली। " पर तुमने बताया नहीं इसलिए तुम्हारे पैसे काटूँगी ,पूरा आधा महीना ही हो गया।" मैंने तल्ख स्वर में कहा।
अब बाई को भी थोड़ा गुस्सा आ गया था हालांकि गलती उसकी ही थी। आमतौर पर बाई नरम स्वभाव की थी पर पैसा कटने की बात सुनकर वह बर्तन छोड़ कर भागने लगी। मैंने उसे इशारे से कहा " इन्हें करके जाओ" उस दिन तनातनी और मनमुटाव ज्यादा हो गया था।
दिन बीते, वह काम पर रोजाना ही इस तरह आती रही। दीपावली का समय आया, मैंने उसके लिए एक सुंदर लाल साड़ी खरीदी। अब उसे पैसा देने की बारी थी। " "अपना पैसा ले ले।" मैंने उसे इशारे से बुलाया।" साथ ही यह तुम्हारी दीपावली की साड़ी" मैंने साड़ी पर रखकर उसको पैसे दिए। उसकी आंखों में एक अलग ही चमक थी। पूरे पैसे देखकर उसकी सारी शिकायत मिट गई और उसने बड़ी खुशी से मेरे पैर छू लिए। " भाभी ,आप बहुत अच्छी हो , आपको धन्यवाद । " अरे! नहीं नहीं, पैर मत छुओ ,अब खुश हो ? "साड़ी कैसी लगी? " मैंने पूछा।
" बहुत अच्छी भाभी , बहुत सुंदर " उसने खुशी खुशी विदा ली। अप्रत्याशित आदर को पाकर मैं काफी देर तक मन ही मन सोचती रही कि यह आदर कुछ विशेष तो था।
यूं तो हमें दिन प्रतिदिन की घटनाओं में आदर या प्रशंसा मिलती रहती है किंतु मनमुटाव के बाद जब कड़वाहट घुलकर बह गई तो यह आदर भी विशेष बन गया था। यह आदर सच्चा आदर था । उस लाल साड़ी में कुछ विशेष नहीं था ,विशेष तो था वह अपनापन जो उसमें घुल गया था इसलिए उस लाल साड़ी का रंग बाई के मन को भी रंग गया था।

नन्हा स्पर्श

नन्हा स्पर्श 

रात के 10:30 बजे होंगे ,मैं किताब पढ़ते पढ़ते नींद में, बिस्तर में निढाल हो गई थी। शायद गहरी नींद में ही चली गई थी । तभी नन्हीं उंगलियों का स्पर्श पाकर कुछ सुध आई। देखा तो पाया कि किसी ने मुझे चादर  ओढ़ा दिया है।
" अरे क्या हुआ बेटी, मैं सो गई थी क्या? " " मेरी किताब कहां है? " मैंने एक साथ प्रश्नों की झड़ी लगा दी। " मैंने किताब को उसकी पॉलिथीन में रख दिया है, आप सो जाओ।" मेरी 7 साल की नन्हीं बेटी ने उत्तर दिया। 
मैंने प्यार से उसे गले लगाया और उसे भी सोने के लिए अपने पास लेटा लिया। तब तक मेरी भी नींद खुल गई थी तो लाइट बंद कर मैं ठीक से बिस्तर पर लेट गई।
स्मृतियां फिर एक बार पीछे की ओर चल पड़ी है। बात उन दिनों की है जब मेरी बेटी काफी छोटी थी और मैं अपने विद्यालय में 11वीं कक्षा में फिजिक्स लेती थी। दिनभर स्कूल, फिर शाम को खाने आदि के बाद रात में मैं पढ़ाने के लिए अध्ययन करती थी । अक्सर पढ़ते-पढ़ते नींद आ जाती थी कई बार। मेरी पुस्तक काफी भारी और बड़ी होती थी। उस दिन भी शायद थकान काफी थी तो पुस्तक हाथ में लिए लिए ही नींद आ गई पर मेरी नन्ही बेटी जाग रही थी जो कि अधिकतर सो जाया करती थी।
लाइट बंद करके उसे सुलाने के बाद मैंने कोशिश की पर मुझे नींद नहीं आई। उसकी नन्ही समझदारी बड़ी पुलकित करने वाली थी, साथ ही आश्चर्य की दुनिया में ले जाने वाली। आखिर क्या आया उस नन्हे से दिल में कि न जाने उसने इतनी सी उम्र में मां की थकान को महसूस किया और साथ ही साथ समझदारी का परिचय देकर सामान को व्यवस्थित रख दिया?
पर उसके नन्हे हाथों से वह चादर ओढ़ाना जैसे जीवन भर की याद हो गई। वैसे तो मां का वात्सल्य अपने बच्चे के लिए सदा ही समान होता है पर आज इस नन्ही समझदारी को देखकर दिल गदगद हो गया था।


बुधवार, 14 जून 2023

विद्यादान

 विद्यादान 

शाम के 5:00 बजे होंगे,मैं अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ एक संस्था के गेट पर खड़ी थी। अचानक से एक बच्चा आया एवं "जय श्री प्रयास" बोलकर उसने मेरे पैर छुए। मैं एकदम से चौंक गई और प्यार से बच्चे को पैर छूने को मना किया।
कुछ ही देर में और कई बच्चे स्नेह वश "जय श्री प्रयास" कहकर पैर छूने आने लगे जिन्हें मैंने प्यार से रोका।" बच्चों , क्या आप यहीं पढ़ते हो? " मैंने पूछा।" जी मैम" उन्होंने उत्तर दिया।
" आइए ना मैम ,अंदर आइए" उन्होंने कहा।" हम आ ही रहे हैं, बस हमारी एक टीचर आ रही हैं  बस उनका इंतजार है" मैंने उत्तर दिया। इस बीच उनके बीच जो भी वरिष्ठ बच्चे थे वो हमें कई बार अंदर आने का निवेदन करके गए और हमने उन्हें कुछ ही देर में आने का दिलासा दिया।
संस्था का नाम था - श्री प्रयास और हमें वहाँ की लाइब्रेरी के लिए कुछ पुस्तकों का योगदान करना था जो हमने अपने ही विद्यार्थियों से इकट्ठा की थी। संस्था एक एनजीओ है जो पुलिस अधिकारियों के द्वारा चलाई जाती है जिसमें गरीब, बेसहारा एवं वंचित वर्ग के बच्चों को ना केवल स्कूल कॉलेज की शिक्षा दी जाती है बल्कि उन्हें विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं जैसी नीट, जेईई की तैयारी के साथ पुलिस ट्रेनिंग आदि भी दी जाती है।
हमें प्रतीक्षा थी हमारे साथी टीचर की जिनके आने के बाद हमें संस्था में छोटा सा कार्यक्रम करना  था। हमारे साथी टीचर के आते ही हमने संस्था में प्रवेश किया। हमारे प्रवेश की खबर मिलते ही सभी बच्चे एक-एक करके, एक बड़े हॉल से ,बड़े ही अनुशासित तरीके से कुर्सियाँ उठाकर सामने मैदान में रखने लगे। मैदान में रेत डाली गई थी ताकि कीचड़ ना हो। कुछ ही मिनटों में बच्चों ने तीन पंक्तियों में कुर्सियाँ लगा ली और सब व्यवस्थित ढंग से उन पर बैठ गए। सामने कुछ कुर्सी और टेबल करीने से कपड़ा बिछाकर रखी गई थी जिस पर माइक रखा गया था संबोधन के लिए।
बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था। उन्होंने तालियाँ  बजाकर ,करतल ध्वनि से हमारा स्वागत किया। अंदर से बड़ा ही अच्छा और विशेष अनुभव हुआ । दिन भी बहुत विशेष था -बाल दिवस। उन्होंने मुझे बच्चों को संबोधित करने के लिए माइक थमाया।
मेरे लिए भी यह पहला मौका था जब इतने सारे बच्चों से वार्तालाप करना था। यूं तो क्लास में रोज ही बच्चों से बातें होती थी। माइक हाथ में लेकर पहले मैंने बच्चों को बाल दिवस की शुभकामनाएं दी और फिर शिक्षा के महत्व पर एक छोटी सी चर्चा की। 
अंत में मैंने अपनी छोटी सी भेंट उनको उपहार स्वरूप दी - 100 के करीब पुस्तकें जो हमने उनके लिए इकट्ठा की थी। बच्चों ने तालियों से हमारा अभिवादन किया। कुछ बच्चों ने चरण स्पर्श किए और हमने अपनी यादों के लिए कुछ फोटो लिए। हमने ख़ुशी ख़ुशी वहाँ  से विदा ली।
उस दिन जिस स्तर की आंतरिक खुशी महसूस हुई वह मुझे बहुत कम मौकों पर महसूस हुई थी। विद्यादान के बाद, बच्चों के खिले हुए चेहरे देखकर और उनके कृतज्ञ मन से निकली तरंगों से मेरा मन लंबे समय तक अद्भुत खुशी महसूस करता रहा। तब समझ आया कि निस्वार्थ काम की इतनी महिमा क्यों है। वास्तव में आपका जीवन तभी सफल है जब वह दूसरों के काम आए।

रविवार, 11 जून 2023

वह सर्द रात

वह सर्द रात 

ठंड की  ठिठुरती रात और इस ठंडी रात में उस पशु की चीत्कार बहुत ही विचलित करने वाली थी।" मम्मी यह कुत्ता तो बहुत रो रहा है ,कुछ नहीं कर सकते क्या इसके लिए? "मैंने अपनी माँ  से पूछा । माँ बोली " बेटा रात बहुत हो गई है,सुबह कुछ करते हैं ।"
बात उन दिनों की है जब मैं स्कूल में पढ़ती थी। हमारे घर के पीछे एक खाली प्लॉट था जिसमें सेप्टिक टैंक था जिसे आधा बना ही छोड़ दिया गया था और उसमें बरसाती पानी भर गया था। उसमें वह कुत्ते का बच्चा गिर गया था और भयंकर ठंड में वह रात भर से कांप रहा था।
सुबह होते ही मैं, मेरी बहन और मेरी मम्मी उस और चल दिए। साथ में कॉलोनी के बच्चे भी थे।  टैंक के पास पहुंचे तो दृश्य बड़ा दिल दहलाने वाला था। छोटा सा बच्चा, रात भर से  गीला ,ठंड में काँपता हुआ, सब से मदद की गुहार लगा रहा था। पूरी रात चिल्लाने के कारण अब उसमें शक्ति भी नहीं बची थी।
पर आश्चर्य की बात तो कुछ और ही घटित हुई जब पूँछ हिलाते हुए बड़े ही करुण स्वर में रोती हुई उसकी माँ हमारे पास दौड़ती आई। वह हमारे चारों ओर ऐसे पूँछ उठाकर घूम रही थी मानो विनती कर रही हो कि मेरे बच्चे को बचा लो। उसकी बेबस आँखें देखकर हमारा दिल ही पिघल गया।
मम्मी ने सबसे पहले यहां वहां नजर दौड़ाई कि कैसे उस बच्चे को बाहर निकालें । टैंक काफी गहरा था। पास में एक घर बन रहा था । हमने उनसे विनती की कि वह हमें लकड़ी की सीढ़ीनुमा चेली थोड़ी देर के लिए दे दे किंतु उन्होंने मदद करने से मना कर दिया। कुछ देर के लिए हम भी विचलित हो गए।
मेरी मम्मी भी हार मानने वाली नहीं थी। उन्होंने आसपास नजर दौड़ाई तो पाया कि उसी प्लॉट में लकड़ी के बहुत सारे पटिए पड़े थे जो किसी समय किसी मकान में उपयोग हुए थे और अभी खाली प्लॉट में फेंक दिए गए थे। उन्होंने बड़ी युक्ति से उन पटियो को इस तरह फेंकना शुरू किया जिससे एक सीढ़ी नुमा ढांचा ऊपर तक बन गया।
शुरू में पटिया फेंकने से वह बच्चा और भी डर गया और हम चिंतित थे कि हम उसे कैसे निकाल पाएंगे। नीचे बच्चा और ऊपर उसकी माँ बस रोए जा रहे थे। धीरे से हमने उसे  पुचकारकर शांत किया और पूरी कोशिश की कि वह ऊपर चढ़े। हमारी मेहनत आखिर रंग लाई - उसने धीरे से पहले पटिए पर कदम रखा ,फिर दूसरे ,फिर तीसरे और इस तरह बारह तेरह पटिए पर दौड़ता हुआ वह टैंक से बाहर आ गया।
बाहर आते ही वह अपनी माँ को देखकर रोते हुए भागा।माँ और बच्चे का मिलन हुआ पर जाने के पहले जो हुआ वह नहीं भुलाता । कुत्ते की माँ ने हमारी ओर देखकर जैसे करुण स्वर में कृतज्ञता की ध्वनि की और फिर अपने बच्चे के साथ चली गई पर उस दिन उसकी आँखों में जो हमने कृतज्ञता की भावना देखी वह अविस्मरणीय  थी।
मूक पशु मुँह से तो कुछ नहीं कह पाया पर आँखों से अभिव्यक्त कर गया। उस रात एक सच्चा और नेक काम करके जो खुशी मिली वह शब्दों में बयां नहीं हो सकती ,बस उस रात की नींद बड़ी मीठी और गहरी थी।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

वह तोहफा

 वह  तोहफा

शाम के चार बजे होंगे ,मैने दरवाज़ा खटखटाया  तो एक दुबली पतली श्याम वर्ण की लड़की बाहर आई अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ। मुझे देखकर वह कुछ आश्चर्य में थी । " अरे नीतू ! तू  आज कैसे ?" " हैप्पी बर्थडे मीनाक्षी ,जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएँ " यह सुनकर मीनाक्षी के चेहरे की रौनक देखते बनती थी । " थैंक्यू , तुझे याद था ?,अंदर चल ना ।" भावभरे स्वर में उसने कहा ।
यादों के संदूक को खंगाला तो जेहन में पुरानी यादें ताजा हो गई | यादों के अनमोल खजाने से एक मीठी याद बाहर आ गई। बात उन दिनों की है जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। मेरी एक सहेली थी- मीनाक्षी। मीनाक्षी कुछ शर्मीली स्वभाव की लड़की थी पर  पढ़ने में बहुत होशियार थी । वह मेरी अच्छी दोस्त थी । जब उसे याद करती हूं तो एक हंसमुख, निष्पाप , सदा संतुष्ट चेहरा याद आता है  जिसमें बिल्कुल छल कपट नहीं था। मीनाक्षी के पापा नहीं थे ।
वह, उसका छोटा भाई एवं उसकी मम्मी किराए से एक छोटे से कमरे में रहते थे। वह साइकिल से स्कूल आती थी ।
भले वह अपने मुंह से कुछ नहीं कहती थी किंतु उसकी मम्मी बड़ी हिम्मत करके उसे ,उस जमाने में प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रही थी।  उसकी मम्मी सिलाई कढ़ाई करके जैसे तैसे घर का खर्च चलाती थी और कुछ आर्थिक मदद उनके मामा करते थे। कुल मिलाकर उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। गर्मी के दिनों में उसका छोटा भाई मेडिकल स्टोर या किसी दुकान पर बैठकर कुछ कमाई कर लेता था । 
एक बार की बात है उसका जन्मदिन आने वाला था और मैं मन ही मन उसके जन्मदिन के लिए कुछ अच्छा करने का सोच रही थी, हालांकि उन दिनों बच्चों के पास इतने पैसे नहीं हुआ करते थे कि वह अपने दोस्त के लिए महंगे तोहफे खरीद सके। मेरे पास थोड़ी सी बचत थी जिससे मैंने उसके लिए एक छोटा सा तोहफा खरीदा और उसे सरप्राइस गिफ्ट देने का फैसला किया ।तोहफा खरीदने के बाद मैंने अपनी साइकिल उठाई एवं स्कूल के बाद शाम को मैं उसके घर पहुंची । घर पहुँचकर क्या हुआ यह तो आपने पढ़ा ही ।तोहफा पाकर वह बहुत भावपूर्ण हो गई, आँखों में जैसे आँसू आने ही बाकी थे । 
लेकिन अब भी कुछ बाकी था ।उसने मुझे खाट पर बैठाया और पानी पिलाया ।  उसने मेरे सामने खाट के नीचे से ₹100 निकाले और अपने भाई को मिठाई लाने के लिए दिए ।   उस जमाने में ₹100 बहुत होते थे और वह भी मीनाक्षी जैसी बच्ची के लिए। अब आश्चर्यचकित होने की बारी मेरी थी उसका बड़ा दिल देख कर । गरीबी में इतनी रकम खर्च करना उसके लिए आसान नहीं था । उसने मेरा मुँह मीठा कराया और हम दोनों प्रेम से कुछ देर बैठे । उसकी आँखों में कृतग्यता थी तो मेरे दिल में सुकून की आज मेने किसी को सच्ची ख़ुशी दी । वास्तव में उस दिन हम दोनों ने सच्ची खुशी पाई जो समाई है सच्ची मित्रता निभाने में एवं उसकी कदर करने में ।अगर आपके साथ जीवन में एक सच्चा मित्र है तो सच्ची खुशी आपसे कभी दूर वैसे भी नहीं जा सकती।आज मेरा तोहफा अनमोल बन गया था ।

शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

वह मीठी रोटी

 वह मीठी रोटी 

रात के आठ बजे होंगे ,दरवाज़े पर घंटी बजी तो देखा माखन दादा दरवाज़े पर खड़े हैं ! कैसरोल  में कुछ लेकर आए  थे । मैने आश्चर्य से पूछा "दादा आप ?" मेरे चेहरे पर हैरानी देखकर वह बोले" बिटिया यह लो गरम गरम चूल्हे की बनी रोटी।" मेरे चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित खुशी थी। माखन दादा हमारी बिल्डिंग में रात के गार्ड का काम करते थे।

वास्तव में अब मेरे और दादा की मित्रता काफी अच्छी हो गई थी । दादा से मेरा कहना सुनना नियमित ही होने लगा था । मैं दादा की रुचियो के बारे में ,उनके गांव के बारे में बात करती। उनकी जबान थोड़ी लड़खड़ाती थी एवं अस्पष्ट सी थी इसलिए थोड़ा ध्यान से ही सुनना पड़ता। वह अक्सर चूल्हे पर बने खाने की ही बात करते हैं। वह अच्छे खाने के शौकीन थे। एक बार बात ही बात में मैंने उन्हें कहा कि कभी हमें भी चूल्हे की रोटी खिलाइए। मैं तो यह कह कर भूल गई पर दादा के मानस में यह बात रह गई। अब मुझे याद आया कि दादा क्यों रोटियाँ लाए थे । 

एक बार मन ने कहा कि कैसे किसी गरीब का निवाला लिया जाए किंतु सच्चे स्नेह की जीत हुई। सोचा प्रेम से लाई गई भेंट को वापस करना ठीक नहीं होगा। ना  नकुर करते हुए मैंने दो रोटियाँ ही उठाई जो कम से कम 4 रोटियों के बराबर थी। चूल्हे पर बनी रोटियाँ वैसे तो विशेष ही थी किंतु उसमे घुला स्नेह अपने आप में विशेष था।

दादा ने करीब एक महीने हमारी बिल्डिंग में रात के गार्ड की नौकरी करी। इस बीच उन्होंने कई बार अपना दूध का पतीला मुझे दिया - रात को दूध गरम करने को। वह रात में कई बार केवल दूध पीकर ही सो जाते और खाना एक  समय ही खाते । एक महीने तक नौकरी करने के बाद वह दूसरी जगह जाने लगे । आखिरी दिन शाम को फिर दरवाज़े की घंटी बजी ।चिर परिचित दादा का चेहरा फिर सामने था । " बिटिया आज यह हमारे हाथ की बनी हुई सेवई खाओ ,मेवे डालकर बनाई है, हालाँकि मेरे पास ज्यादा मेवे नहीं थे इसलिए इतनी अच्छी तो नहीं बनी है लेकिन खाकर बताना कैसी है ।" 

मैं स्तब्ध थी यह देख सुनकर । चूल्हे की मीठी रोटी का स्वाद तो अभी गया नहीं था और आज ये सेवई । वास्तव में खाना एक बहाना था ,उसके पीछे छुपे अविरल स्नेह को मैं साफ़ देख पा रही थी । केवल कुछ स्नेह और सम्मान की आस होती है हर मन में ,वह मिले तो जैसे मन से मन जुड़ जाता है और वही हुआ था । थोड़ी सी मानवता और प्रेम के दो बोल दादा के मन में उतर गए थे और जाते जाते भी जैसे वह अपने स्नेह को इस मीठी सेवई के माध्यम से व्यक्त करना चाह  रहे थे ।

उनका निस्वार्थ स्नेह एवं अपनापन देखकर मेरे पास कोई शब्द नहीं  थे | मैं केवल उन्हें धन्यवाद ही कह पाई। मैं केवल यह सोच रही थी की मेरी अपेक्षा वह साधन हीन है, गरीब है पर मैं उन्हें क्या दे सकती हूं? देने के मामले में तो वह मुझसे कहीं आगे हैं क्योंकि उनका दिल बहुत बड़ा है। वास्तव में खुशी का अहसास संपन्नता एवं साधनों से नहीं होता वह तो दिल के बड़ेपन से होता है। यह सीख मुझे इन बुजुर्ग से भलीभांति मिली|

 

रविवार, 1 जनवरी 2023

दूध का पतीला

 दूध का पतीला

 

 माखन दादा दूध का पतीला हाथ में लेकर खड़े थे - परेशान! माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही थी जैसे अनिश्चय की स्थिति हो कि क्या करें? रात के 9:30 बजे होंगे, मैं गाय- कुत्तों की रोटी लेकर नीचे उतरी थी।

माखन दादा हमारी बिल्डिंग में रात के गार्ड का काम करते थे और आज उनका काम पर पहला दिन था। वैसे वह मेरे लिए अपरिचित नहीं थे - पीछे वाली बंगलो की चौकीदारी के समय मैं उन्हें रोज रात को दूसरे गेट पर देखती थी | उम्र कोई 60 वर्ष किंतु चुस्ती फुर्ती 30 वर्ष जैसी। वह हर रात लकड़ियां बीनकर उन पर अपना खाना बनाते थे। क्यों नहीं वह एक छोटी गैस रख लेते खाना बनाने के लिए यह पूछने पर उनका जवाब होता उन्हें लकड़ी पर बना खाना बहुत पसंद है। कभी उनकी मोटी मोटी सोंधी सोंधी रोटियां सिकती रहती, कभी कुकर में दाल की सीटी बजती रहती तो कभी पतीले में दूध की रबड़ी बनती रहती । दादा को अपने हाथ से बनाकर अच्छा खाना ही पसंद था।

वह समय था गर्मी का किंतु हमारी बिल्डिंग में आते-आते बरसात का समय आ गया था। साथ ही इस तरफ वह खाना बनाने की जगह नहीं ढूंढ पा रहे थे। उन्हें देखकर मैंने वार्तालाप शुरू किया। मैंने उनसे खाने के लिए पूछा तो जैसे उनकी चिंता अचानक से सामने आ गई। कोई और मिला ही नहीं जिससे वह अपनी पीड़ा कह सके। झिझक के मारे वह किसी से सहायता की प्रार्थना भी नहीं कर पा रहे थे। जब खाने के बारे में पूछा तो वह बोल ही पड़े" बिटिया हमारा दूध गर्म कर दोगी क्या वरना हम तो भूखे ही मर जाएंगे? " मैंने फौरन कहा" क्यों नहीं जरूर कर देंगे।"

" कुछ और भी खाएंगे क्या रोटी सब्जी है मेरे पास? " मैंने पूछा। उन्होंने रजामंदी में सिर हिलाया। मैं फौरन ऊपर गई एवं एक प्लेट में सब्जी रोटी लेकर आई। इसी बीच मैंने उनका दूध भी गर्म किया। दूध करीब एक लीटर था। उस दिन मैंने उनकी आंखों में जो संतुष्टि देखी उसने मेरे अंतस में खुशी की एवं संतुष्टि की एक लहर उत्पन्न कर दी। वह छोटी सी स्वार्थ रहित सहायता एक गहरा सुकून एवं शांति देने वाली थी।

थी तो वह एक छोटी सी मानवीय सहायता किंतु उसका असर बड़ा गहरा था। उनसे मेरा रिश्ता कुछ विशेष नहीं था बस आते जाते साधारण बातचीत ही होती थी किंतु मानवता की एक महीन डोर दोनों के बीच थी। इस छोटी सी घटना ने जैसे फिर से खुशी की परिभाषा दी- वही खुशी जो हम चीजों में, साधनों में ढूंढते हैं किंतु वह तो छुपी है निस्वार्थ भावनाओं में।आज सोचती हूं तो हँसी सी आती है किंतु सत्य यही है कि उस दिन उस दूध के पतीले में ही जैसे सच्ची खुशी की चाबी थी।

मेरा बचपन

 मेरा बचपन कितना मधुर , जितना निश्चल मेरा प्यारा बचपन मीठी सुंदर अनुभूतियों से हर्षा जाता है मन सुखद दुखद से परे उसमें था पूर्ण आनंद निष्पाप...