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रविवार, 1 जनवरी 2023

दूध का पतीला

 दूध का पतीला

 

 माखन दादा दूध का पतीला हाथ में लेकर खड़े थे - परेशान! माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही थी जैसे अनिश्चय की स्थिति हो कि क्या करें? रात के 9:30 बजे होंगे, मैं गाय- कुत्तों की रोटी लेकर नीचे उतरी थी।

माखन दादा हमारी बिल्डिंग में रात के गार्ड का काम करते थे और आज उनका काम पर पहला दिन था। वैसे वह मेरे लिए अपरिचित नहीं थे - पीछे वाली बंगलो की चौकीदारी के समय मैं उन्हें रोज रात को दूसरे गेट पर देखती थी | उम्र कोई 60 वर्ष किंतु चुस्ती फुर्ती 30 वर्ष जैसी। वह हर रात लकड़ियां बीनकर उन पर अपना खाना बनाते थे। क्यों नहीं वह एक छोटी गैस रख लेते खाना बनाने के लिए यह पूछने पर उनका जवाब होता उन्हें लकड़ी पर बना खाना बहुत पसंद है। कभी उनकी मोटी मोटी सोंधी सोंधी रोटियां सिकती रहती, कभी कुकर में दाल की सीटी बजती रहती तो कभी पतीले में दूध की रबड़ी बनती रहती । दादा को अपने हाथ से बनाकर अच्छा खाना ही पसंद था।

वह समय था गर्मी का किंतु हमारी बिल्डिंग में आते-आते बरसात का समय आ गया था। साथ ही इस तरफ वह खाना बनाने की जगह नहीं ढूंढ पा रहे थे। उन्हें देखकर मैंने वार्तालाप शुरू किया। मैंने उनसे खाने के लिए पूछा तो जैसे उनकी चिंता अचानक से सामने आ गई। कोई और मिला ही नहीं जिससे वह अपनी पीड़ा कह सके। झिझक के मारे वह किसी से सहायता की प्रार्थना भी नहीं कर पा रहे थे। जब खाने के बारे में पूछा तो वह बोल ही पड़े" बिटिया हमारा दूध गर्म कर दोगी क्या वरना हम तो भूखे ही मर जाएंगे? " मैंने फौरन कहा" क्यों नहीं जरूर कर देंगे।"

" कुछ और भी खाएंगे क्या रोटी सब्जी है मेरे पास? " मैंने पूछा। उन्होंने रजामंदी में सिर हिलाया। मैं फौरन ऊपर गई एवं एक प्लेट में सब्जी रोटी लेकर आई। इसी बीच मैंने उनका दूध भी गर्म किया। दूध करीब एक लीटर था। उस दिन मैंने उनकी आंखों में जो संतुष्टि देखी उसने मेरे अंतस में खुशी की एवं संतुष्टि की एक लहर उत्पन्न कर दी। वह छोटी सी स्वार्थ रहित सहायता एक गहरा सुकून एवं शांति देने वाली थी।

थी तो वह एक छोटी सी मानवीय सहायता किंतु उसका असर बड़ा गहरा था। उनसे मेरा रिश्ता कुछ विशेष नहीं था बस आते जाते साधारण बातचीत ही होती थी किंतु मानवता की एक महीन डोर दोनों के बीच थी। इस छोटी सी घटना ने जैसे फिर से खुशी की परिभाषा दी- वही खुशी जो हम चीजों में, साधनों में ढूंढते हैं किंतु वह तो छुपी है निस्वार्थ भावनाओं में।आज सोचती हूं तो हँसी सी आती है किंतु सत्य यही है कि उस दिन उस दूध के पतीले में ही जैसे सच्ची खुशी की चाबी थी।

मेरा बचपन

 मेरा बचपन कितना मधुर , जितना निश्चल मेरा प्यारा बचपन मीठी सुंदर अनुभूतियों से हर्षा जाता है मन सुखद दुखद से परे उसमें था पूर्ण आनंद निष्पाप...