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सोमवार, 26 जून 2023

लाल साड़ी

 लाल साड़ी

मैं जल्दी-जल्दी रसोई में खाना बनाने में लगी हुई थी ,साथ ही चिंता की लकीरें साफ तौर पर मेरे माथे पर झलक रही थी।" आज भी नहीं आई काम पर ,8 दिन का बोल कर गई थी, 10 दिन हो गए आने दो देखती हूं उसे" मैं स्वयं ही बड़बड़ा रही थी। सुबह का समय आमतौर पर बहुत ही व्यस्त होता है क्योंकि मुझे 7:30 बजे विद्यालय जाना होता है लेकिन मेरी बाई कई दिन से गायब थी ,वह भी बिना बताए।
" इस बार मैं उसे पूरा पैसा बिल्कुल नहीं दूंगी , पैसा जरूर काटूँगी ।" मैं गुस्से में बोलती जा रही थी। जैसे जैसे समय बढ़ता जा रहा था मेरा गुस्सा भी बढ़ रहा था। अचानक ही घंटी बजी , 6:30 बजे होंगे। मेरी बाई एक दूसरी बाई के साथ घर में प्रवेश कर रही थी। उसे देखते ही मेरा गुस्सा जैसे फट पड़ा। सबसे अधिक गुस्सा इस बात का था कि वह बिना बताए गायब थी।
" कितने दिनों में आ रही हो तुम? " मैंने क्रोध से पूछा।" भाभी ! मैंने बताया तो था कि नवरात्रि में जवारे रखे हैं घर पर, तो नहीं आऊंगी।" बाई बोली।" तुमने केवल 8 दिन का कहा था पर आज 11 दिन हो गए। तुम्हें पता है ,सुबह का समय कितना कीमती होता है ,मुझे कितनी परेशानी  होती है ऐसे बिना बताए गायब होने से?" मैंने गुस्से में कहा।
" क्या करूं भाभी, घर में जवारे रखे थे, इतना काम था इसीलिए नहीं आई।"बाई बोली। " पर तुमने बताया नहीं इसलिए तुम्हारे पैसे काटूँगी ,पूरा आधा महीना ही हो गया।" मैंने तल्ख स्वर में कहा।
अब बाई को भी थोड़ा गुस्सा आ गया था हालांकि गलती उसकी ही थी। आमतौर पर बाई नरम स्वभाव की थी पर पैसा कटने की बात सुनकर वह बर्तन छोड़ कर भागने लगी। मैंने उसे इशारे से कहा " इन्हें करके जाओ" उस दिन तनातनी और मनमुटाव ज्यादा हो गया था।
दिन बीते, वह काम पर रोजाना ही इस तरह आती रही। दीपावली का समय आया, मैंने उसके लिए एक सुंदर लाल साड़ी खरीदी। अब उसे पैसा देने की बारी थी। " "अपना पैसा ले ले।" मैंने उसे इशारे से बुलाया।" साथ ही यह तुम्हारी दीपावली की साड़ी" मैंने साड़ी पर रखकर उसको पैसे दिए। उसकी आंखों में एक अलग ही चमक थी। पूरे पैसे देखकर उसकी सारी शिकायत मिट गई और उसने बड़ी खुशी से मेरे पैर छू लिए। " भाभी ,आप बहुत अच्छी हो , आपको धन्यवाद । " अरे! नहीं नहीं, पैर मत छुओ ,अब खुश हो ? "साड़ी कैसी लगी? " मैंने पूछा।
" बहुत अच्छी भाभी , बहुत सुंदर " उसने खुशी खुशी विदा ली। अप्रत्याशित आदर को पाकर मैं काफी देर तक मन ही मन सोचती रही कि यह आदर कुछ विशेष तो था।
यूं तो हमें दिन प्रतिदिन की घटनाओं में आदर या प्रशंसा मिलती रहती है किंतु मनमुटाव के बाद जब कड़वाहट घुलकर बह गई तो यह आदर भी विशेष बन गया था। यह आदर सच्चा आदर था । उस लाल साड़ी में कुछ विशेष नहीं था ,विशेष तो था वह अपनापन जो उसमें घुल गया था इसलिए उस लाल साड़ी का रंग बाई के मन को भी रंग गया था।

मेरा बचपन

 मेरा बचपन कितना मधुर , जितना निश्चल मेरा प्यारा बचपन मीठी सुंदर अनुभूतियों से हर्षा जाता है मन सुखद दुखद से परे उसमें था पूर्ण आनंद निष्पाप...