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शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

वह मीठी रोटी

 वह मीठी रोटी 

रात के आठ बजे होंगे ,दरवाज़े पर घंटी बजी तो देखा माखन दादा दरवाज़े पर खड़े हैं ! कैसरोल  में कुछ लेकर आए  थे । मैने आश्चर्य से पूछा "दादा आप ?" मेरे चेहरे पर हैरानी देखकर वह बोले" बिटिया यह लो गरम गरम चूल्हे की बनी रोटी।" मेरे चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित खुशी थी। माखन दादा हमारी बिल्डिंग में रात के गार्ड का काम करते थे।

वास्तव में अब मेरे और दादा की मित्रता काफी अच्छी हो गई थी । दादा से मेरा कहना सुनना नियमित ही होने लगा था । मैं दादा की रुचियो के बारे में ,उनके गांव के बारे में बात करती। उनकी जबान थोड़ी लड़खड़ाती थी एवं अस्पष्ट सी थी इसलिए थोड़ा ध्यान से ही सुनना पड़ता। वह अक्सर चूल्हे पर बने खाने की ही बात करते हैं। वह अच्छे खाने के शौकीन थे। एक बार बात ही बात में मैंने उन्हें कहा कि कभी हमें भी चूल्हे की रोटी खिलाइए। मैं तो यह कह कर भूल गई पर दादा के मानस में यह बात रह गई। अब मुझे याद आया कि दादा क्यों रोटियाँ लाए थे । 

एक बार मन ने कहा कि कैसे किसी गरीब का निवाला लिया जाए किंतु सच्चे स्नेह की जीत हुई। सोचा प्रेम से लाई गई भेंट को वापस करना ठीक नहीं होगा। ना  नकुर करते हुए मैंने दो रोटियाँ ही उठाई जो कम से कम 4 रोटियों के बराबर थी। चूल्हे पर बनी रोटियाँ वैसे तो विशेष ही थी किंतु उसमे घुला स्नेह अपने आप में विशेष था।

दादा ने करीब एक महीने हमारी बिल्डिंग में रात के गार्ड की नौकरी करी। इस बीच उन्होंने कई बार अपना दूध का पतीला मुझे दिया - रात को दूध गरम करने को। वह रात में कई बार केवल दूध पीकर ही सो जाते और खाना एक  समय ही खाते । एक महीने तक नौकरी करने के बाद वह दूसरी जगह जाने लगे । आखिरी दिन शाम को फिर दरवाज़े की घंटी बजी ।चिर परिचित दादा का चेहरा फिर सामने था । " बिटिया आज यह हमारे हाथ की बनी हुई सेवई खाओ ,मेवे डालकर बनाई है, हालाँकि मेरे पास ज्यादा मेवे नहीं थे इसलिए इतनी अच्छी तो नहीं बनी है लेकिन खाकर बताना कैसी है ।" 

मैं स्तब्ध थी यह देख सुनकर । चूल्हे की मीठी रोटी का स्वाद तो अभी गया नहीं था और आज ये सेवई । वास्तव में खाना एक बहाना था ,उसके पीछे छुपे अविरल स्नेह को मैं साफ़ देख पा रही थी । केवल कुछ स्नेह और सम्मान की आस होती है हर मन में ,वह मिले तो जैसे मन से मन जुड़ जाता है और वही हुआ था । थोड़ी सी मानवता और प्रेम के दो बोल दादा के मन में उतर गए थे और जाते जाते भी जैसे वह अपने स्नेह को इस मीठी सेवई के माध्यम से व्यक्त करना चाह  रहे थे ।

उनका निस्वार्थ स्नेह एवं अपनापन देखकर मेरे पास कोई शब्द नहीं  थे | मैं केवल उन्हें धन्यवाद ही कह पाई। मैं केवल यह सोच रही थी की मेरी अपेक्षा वह साधन हीन है, गरीब है पर मैं उन्हें क्या दे सकती हूं? देने के मामले में तो वह मुझसे कहीं आगे हैं क्योंकि उनका दिल बहुत बड़ा है। वास्तव में खुशी का अहसास संपन्नता एवं साधनों से नहीं होता वह तो दिल के बड़ेपन से होता है। यह सीख मुझे इन बुजुर्ग से भलीभांति मिली|

 

मेरा बचपन

 मेरा बचपन कितना मधुर , जितना निश्चल मेरा प्यारा बचपन मीठी सुंदर अनुभूतियों से हर्षा जाता है मन सुखद दुखद से परे उसमें था पूर्ण आनंद निष्पाप...