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बुधवार, 14 जून 2023

विद्यादान

 विद्यादान 

शाम के 5:00 बजे होंगे,मैं अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ एक संस्था के गेट पर खड़ी थी। अचानक से एक बच्चा आया एवं "जय श्री प्रयास" बोलकर उसने मेरे पैर छुए। मैं एकदम से चौंक गई और प्यार से बच्चे को पैर छूने को मना किया।
कुछ ही देर में और कई बच्चे स्नेह वश "जय श्री प्रयास" कहकर पैर छूने आने लगे जिन्हें मैंने प्यार से रोका।" बच्चों , क्या आप यहीं पढ़ते हो? " मैंने पूछा।" जी मैम" उन्होंने उत्तर दिया।
" आइए ना मैम ,अंदर आइए" उन्होंने कहा।" हम आ ही रहे हैं, बस हमारी एक टीचर आ रही हैं  बस उनका इंतजार है" मैंने उत्तर दिया। इस बीच उनके बीच जो भी वरिष्ठ बच्चे थे वो हमें कई बार अंदर आने का निवेदन करके गए और हमने उन्हें कुछ ही देर में आने का दिलासा दिया।
संस्था का नाम था - श्री प्रयास और हमें वहाँ की लाइब्रेरी के लिए कुछ पुस्तकों का योगदान करना था जो हमने अपने ही विद्यार्थियों से इकट्ठा की थी। संस्था एक एनजीओ है जो पुलिस अधिकारियों के द्वारा चलाई जाती है जिसमें गरीब, बेसहारा एवं वंचित वर्ग के बच्चों को ना केवल स्कूल कॉलेज की शिक्षा दी जाती है बल्कि उन्हें विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं जैसी नीट, जेईई की तैयारी के साथ पुलिस ट्रेनिंग आदि भी दी जाती है।
हमें प्रतीक्षा थी हमारे साथी टीचर की जिनके आने के बाद हमें संस्था में छोटा सा कार्यक्रम करना  था। हमारे साथी टीचर के आते ही हमने संस्था में प्रवेश किया। हमारे प्रवेश की खबर मिलते ही सभी बच्चे एक-एक करके, एक बड़े हॉल से ,बड़े ही अनुशासित तरीके से कुर्सियाँ उठाकर सामने मैदान में रखने लगे। मैदान में रेत डाली गई थी ताकि कीचड़ ना हो। कुछ ही मिनटों में बच्चों ने तीन पंक्तियों में कुर्सियाँ लगा ली और सब व्यवस्थित ढंग से उन पर बैठ गए। सामने कुछ कुर्सी और टेबल करीने से कपड़ा बिछाकर रखी गई थी जिस पर माइक रखा गया था संबोधन के लिए।
बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था। उन्होंने तालियाँ  बजाकर ,करतल ध्वनि से हमारा स्वागत किया। अंदर से बड़ा ही अच्छा और विशेष अनुभव हुआ । दिन भी बहुत विशेष था -बाल दिवस। उन्होंने मुझे बच्चों को संबोधित करने के लिए माइक थमाया।
मेरे लिए भी यह पहला मौका था जब इतने सारे बच्चों से वार्तालाप करना था। यूं तो क्लास में रोज ही बच्चों से बातें होती थी। माइक हाथ में लेकर पहले मैंने बच्चों को बाल दिवस की शुभकामनाएं दी और फिर शिक्षा के महत्व पर एक छोटी सी चर्चा की। 
अंत में मैंने अपनी छोटी सी भेंट उनको उपहार स्वरूप दी - 100 के करीब पुस्तकें जो हमने उनके लिए इकट्ठा की थी। बच्चों ने तालियों से हमारा अभिवादन किया। कुछ बच्चों ने चरण स्पर्श किए और हमने अपनी यादों के लिए कुछ फोटो लिए। हमने ख़ुशी ख़ुशी वहाँ  से विदा ली।
उस दिन जिस स्तर की आंतरिक खुशी महसूस हुई वह मुझे बहुत कम मौकों पर महसूस हुई थी। विद्यादान के बाद, बच्चों के खिले हुए चेहरे देखकर और उनके कृतज्ञ मन से निकली तरंगों से मेरा मन लंबे समय तक अद्भुत खुशी महसूस करता रहा। तब समझ आया कि निस्वार्थ काम की इतनी महिमा क्यों है। वास्तव में आपका जीवन तभी सफल है जब वह दूसरों के काम आए।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

वह तोहफा

 वह  तोहफा

शाम के चार बजे होंगे ,मैने दरवाज़ा खटखटाया  तो एक दुबली पतली श्याम वर्ण की लड़की बाहर आई अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ। मुझे देखकर वह कुछ आश्चर्य में थी । " अरे नीतू ! तू  आज कैसे ?" " हैप्पी बर्थडे मीनाक्षी ,जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएँ " यह सुनकर मीनाक्षी के चेहरे की रौनक देखते बनती थी । " थैंक्यू , तुझे याद था ?,अंदर चल ना ।" भावभरे स्वर में उसने कहा ।
यादों के संदूक को खंगाला तो जेहन में पुरानी यादें ताजा हो गई | यादों के अनमोल खजाने से एक मीठी याद बाहर आ गई। बात उन दिनों की है जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। मेरी एक सहेली थी- मीनाक्षी। मीनाक्षी कुछ शर्मीली स्वभाव की लड़की थी पर  पढ़ने में बहुत होशियार थी । वह मेरी अच्छी दोस्त थी । जब उसे याद करती हूं तो एक हंसमुख, निष्पाप , सदा संतुष्ट चेहरा याद आता है  जिसमें बिल्कुल छल कपट नहीं था। मीनाक्षी के पापा नहीं थे ।
वह, उसका छोटा भाई एवं उसकी मम्मी किराए से एक छोटे से कमरे में रहते थे। वह साइकिल से स्कूल आती थी ।
भले वह अपने मुंह से कुछ नहीं कहती थी किंतु उसकी मम्मी बड़ी हिम्मत करके उसे ,उस जमाने में प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रही थी।  उसकी मम्मी सिलाई कढ़ाई करके जैसे तैसे घर का खर्च चलाती थी और कुछ आर्थिक मदद उनके मामा करते थे। कुल मिलाकर उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। गर्मी के दिनों में उसका छोटा भाई मेडिकल स्टोर या किसी दुकान पर बैठकर कुछ कमाई कर लेता था । 
एक बार की बात है उसका जन्मदिन आने वाला था और मैं मन ही मन उसके जन्मदिन के लिए कुछ अच्छा करने का सोच रही थी, हालांकि उन दिनों बच्चों के पास इतने पैसे नहीं हुआ करते थे कि वह अपने दोस्त के लिए महंगे तोहफे खरीद सके। मेरे पास थोड़ी सी बचत थी जिससे मैंने उसके लिए एक छोटा सा तोहफा खरीदा और उसे सरप्राइस गिफ्ट देने का फैसला किया ।तोहफा खरीदने के बाद मैंने अपनी साइकिल उठाई एवं स्कूल के बाद शाम को मैं उसके घर पहुंची । घर पहुँचकर क्या हुआ यह तो आपने पढ़ा ही ।तोहफा पाकर वह बहुत भावपूर्ण हो गई, आँखों में जैसे आँसू आने ही बाकी थे । 
लेकिन अब भी कुछ बाकी था ।उसने मुझे खाट पर बैठाया और पानी पिलाया ।  उसने मेरे सामने खाट के नीचे से ₹100 निकाले और अपने भाई को मिठाई लाने के लिए दिए ।   उस जमाने में ₹100 बहुत होते थे और वह भी मीनाक्षी जैसी बच्ची के लिए। अब आश्चर्यचकित होने की बारी मेरी थी उसका बड़ा दिल देख कर । गरीबी में इतनी रकम खर्च करना उसके लिए आसान नहीं था । उसने मेरा मुँह मीठा कराया और हम दोनों प्रेम से कुछ देर बैठे । उसकी आँखों में कृतग्यता थी तो मेरे दिल में सुकून की आज मेने किसी को सच्ची ख़ुशी दी । वास्तव में उस दिन हम दोनों ने सच्ची खुशी पाई जो समाई है सच्ची मित्रता निभाने में एवं उसकी कदर करने में ।अगर आपके साथ जीवन में एक सच्चा मित्र है तो सच्ची खुशी आपसे कभी दूर वैसे भी नहीं जा सकती।आज मेरा तोहफा अनमोल बन गया था ।

रविवार, 1 जनवरी 2023

दूध का पतीला

 दूध का पतीला

 

 माखन दादा दूध का पतीला हाथ में लेकर खड़े थे - परेशान! माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही थी जैसे अनिश्चय की स्थिति हो कि क्या करें? रात के 9:30 बजे होंगे, मैं गाय- कुत्तों की रोटी लेकर नीचे उतरी थी।

माखन दादा हमारी बिल्डिंग में रात के गार्ड का काम करते थे और आज उनका काम पर पहला दिन था। वैसे वह मेरे लिए अपरिचित नहीं थे - पीछे वाली बंगलो की चौकीदारी के समय मैं उन्हें रोज रात को दूसरे गेट पर देखती थी | उम्र कोई 60 वर्ष किंतु चुस्ती फुर्ती 30 वर्ष जैसी। वह हर रात लकड़ियां बीनकर उन पर अपना खाना बनाते थे। क्यों नहीं वह एक छोटी गैस रख लेते खाना बनाने के लिए यह पूछने पर उनका जवाब होता उन्हें लकड़ी पर बना खाना बहुत पसंद है। कभी उनकी मोटी मोटी सोंधी सोंधी रोटियां सिकती रहती, कभी कुकर में दाल की सीटी बजती रहती तो कभी पतीले में दूध की रबड़ी बनती रहती । दादा को अपने हाथ से बनाकर अच्छा खाना ही पसंद था।

वह समय था गर्मी का किंतु हमारी बिल्डिंग में आते-आते बरसात का समय आ गया था। साथ ही इस तरफ वह खाना बनाने की जगह नहीं ढूंढ पा रहे थे। उन्हें देखकर मैंने वार्तालाप शुरू किया। मैंने उनसे खाने के लिए पूछा तो जैसे उनकी चिंता अचानक से सामने आ गई। कोई और मिला ही नहीं जिससे वह अपनी पीड़ा कह सके। झिझक के मारे वह किसी से सहायता की प्रार्थना भी नहीं कर पा रहे थे। जब खाने के बारे में पूछा तो वह बोल ही पड़े" बिटिया हमारा दूध गर्म कर दोगी क्या वरना हम तो भूखे ही मर जाएंगे? " मैंने फौरन कहा" क्यों नहीं जरूर कर देंगे।"

" कुछ और भी खाएंगे क्या रोटी सब्जी है मेरे पास? " मैंने पूछा। उन्होंने रजामंदी में सिर हिलाया। मैं फौरन ऊपर गई एवं एक प्लेट में सब्जी रोटी लेकर आई। इसी बीच मैंने उनका दूध भी गर्म किया। दूध करीब एक लीटर था। उस दिन मैंने उनकी आंखों में जो संतुष्टि देखी उसने मेरे अंतस में खुशी की एवं संतुष्टि की एक लहर उत्पन्न कर दी। वह छोटी सी स्वार्थ रहित सहायता एक गहरा सुकून एवं शांति देने वाली थी।

थी तो वह एक छोटी सी मानवीय सहायता किंतु उसका असर बड़ा गहरा था। उनसे मेरा रिश्ता कुछ विशेष नहीं था बस आते जाते साधारण बातचीत ही होती थी किंतु मानवता की एक महीन डोर दोनों के बीच थी। इस छोटी सी घटना ने जैसे फिर से खुशी की परिभाषा दी- वही खुशी जो हम चीजों में, साधनों में ढूंढते हैं किंतु वह तो छुपी है निस्वार्थ भावनाओं में।आज सोचती हूं तो हँसी सी आती है किंतु सत्य यही है कि उस दिन उस दूध के पतीले में ही जैसे सच्ची खुशी की चाबी थी।

मेरा बचपन

 मेरा बचपन कितना मधुर , जितना निश्चल मेरा प्यारा बचपन मीठी सुंदर अनुभूतियों से हर्षा जाता है मन सुखद दुखद से परे उसमें था पूर्ण आनंद निष्पाप...